२०१३ अपनी आखरी साँसे गिन रहा है,
सोच रहा है, कैसे बीत गए मेरे जीवन के ये ३६५ दिन,
अभी तो मैं जन्मा था, अभी अतीतरुपी काल मेरे प्राण हरने चला आया,
अपने जीवन को पीछे मुडकर देखा तो सोच में पड गया,
कितनी बाते कितनी यादे कुछ खट्टी, कुछ मीठी बातें,
हुआ दुखी मन जब मेरे कुछ सपूतो का सिर काट ले गया दुश्मन,
है गर्व मुझे कि मेंरे जीवन में ही हुआ महाकुंभ का आयोजन,
जिसे करोडो भगवान कहते थे उसने अपना यज्ञ समाप्त किया
मेरे ही जीवनकाल में,
आम आदमी भी उठ खडा हुआ शासक बना इस साल में ।
मैं तो जा रहा हूँ पर अपने प्राणॊ की आहुति से, उम्मीद का एक नव दीप जला रहा हूँ,
ये भविष्य को रोशन करेगा, तुम्हारे जीवन को हर्ष से भरेगा,
यही है मेरी अंतिम इच्छा ।
सोमवार, 30 दिसंबर 2013
बुधवार, 25 दिसंबर 2013
कोना बढत मैथिली
जीवन के २८ मे स २२ वर्ष मुंबई शहर मे गुजरि गेल किंतु आसपास मैथिल समाज भेला के वजह स मैथिली बाज आ समझ के सामर्थ्य भेल । सतत फेसबुक पर मैथिली भाषा के प्रचार आ प्रसार कर लेल विभिन्न संस्था द्वारा जे प्रयास भ रहल अछि से देख क प्रसन्न्ता होयत अछि । एहि पवित्र कार्य मे अपन तुच्छ योगदान के रुप में आब स किछु पोस्ट अपन ब्लॉग पर मैथिली भाषा मे सेहो लिखनाय शुरु क रहल छी कियैक त अपन मातृभाषा के लेल जे भ सकत से करनाय हम अपन कर्तव्य बुझय छी । किंतु सतत हमरा इ चिंता होयत रहय जे नव पीढी मैथिली स दूर जा रहल अछि। जखन अपन मैथिल समाज के विभिन्न शहर में रहवाला ५ स २० वर्ष के आयुवाला नेना-भुटका/युवा सब स भेट होइया त ओइमे स अधिकांश केवल मैथिली सुनि क बुझ जैत छथि किंतु बाजि नै पाबय छथि ।इ सत्य अछि और एकर कारण त हमरा याह बुझैत अछि जे जखन बच्चा अंग्रेजी मे "जॉनी-जॉनी" सुनबैत अछि त पालक प्रसन्न भ जैत छथि किंतु बच्चा सबके अपन मातृभाषा के सिखाब के कोनो प्रयास नै करैत छथि तखन कोना मैथिली भाषा अक्षुण्ण रहत ? कि मैथिली केवल दरभंगा - मधुबनी में रहवाला लोके तक सीमीत रहि जेते मुंबई,दिल्ली,कोलकाता, हैदराबाद आ बंगलुरु में रहवाला मैथिल नेना-भुटका/युवा मैथिली बिसरि जेता ? प्रश्न गंभीर आ विचारणीय छै । हम चूंकि मुंबई में रहलो त हमरा मराठी त बड नीक बाज आबयाय, कारण समाज मराठी छल, लेकिन आसपास मैथिली समाज सेहो छल, यदि संभवतः इ नै रहैत त शायद मैथिली बाज नै आबैत । अतः इ स्पष्ट छै जे समाज भाषा के प्रचार के लेल एगो महत्वपूर्ण कारक अछि । सामाजिक कार्यक्रम चाहे ओ सार्वजनिक होइ जेना कि अष्टजाम,सामूहिक पूजा,साहित्यिक कार्यक्रम,कवि सम्मेलन या निजी कार्यक्रम आदि में नेना-भुटका/युवा के सहभागिता सदैव कम रहय छै ।कारण माता-पिता अपन बालक-बालिका के एहन कोनो आयोजन मे ल जेनाय कष्टप्रद बुझैत छथि, और अहिके लेल पूर्ण रुप स जिम्मेदार छथि । एहन सामाजिक कार्यक्रम में यदि नेना-भुटका/युवा सहभागी हेता और अनेक लोक के अपन भाषा बाजैत सुनथिन त निश्चित रुप स अपन भाषा में हुनकर रुचि बढतैन ।इ त हम एकटा उदाहरण देलौ है, एहिना यदि प्रत्येक माय-बाप केवल अपना बालक-बालिका के अपन मातृभाषा सिखा देता ताहि स भाषा प्रचलित आ बढैत रहत ।
शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013
लडकपन के दिन
घर की खिडकी से देखा जब,
नन्हे-मुन्हों को खेलते हुए,
ना जाने मन क्यूं चला गया,
पुरानी यादो के साए में.
वो लडकपन के दिन,खेलना मजे से, वो रहना बेपरवाह,
ना चिंता थी कल की, ना कल का था बोझ,
जीते थे आज में, बस उसी क्षण में, करते थे मौज ।
वो मस्ती के दिन,वो माँ को सताना,
क्रिकेट के आगे सब भूल जाना, क्या खाना क्या पीना,
वक्त पर घर ना आना, वो माँ की डाँट,दुलार,प्यार,
वो डर पापा की फटकार का , मार का,
बचने के लिए जिससे सो जाना जल्दी रोज ,
जीते थे आज में बस,उसी क्षण में, करते थे मौज ।
चाहकर भी ना आएंगे फिर लौटकर,
जीवन के हमारे वो स्वर्णिम क्षण,
वो पवित्र समर्पण, वो निष्पाप मन,
ना आशा किसी से, ना ही कोई स्वार्थ,
करते थे वही,उतना ही,जितनी थी समझ,
जीते थे आज में,बस उसी क्षण में, करते थे मौज ।
नन्हे-मुन्हों को खेलते हुए,
ना जाने मन क्यूं चला गया,
पुरानी यादो के साए में.
वो लडकपन के दिन,खेलना मजे से, वो रहना बेपरवाह,
ना चिंता थी कल की, ना कल का था बोझ,
जीते थे आज में, बस उसी क्षण में, करते थे मौज ।
वो मस्ती के दिन,वो माँ को सताना,
क्रिकेट के आगे सब भूल जाना, क्या खाना क्या पीना,
वक्त पर घर ना आना, वो माँ की डाँट,दुलार,प्यार,
वो डर पापा की फटकार का , मार का,
बचने के लिए जिससे सो जाना जल्दी रोज ,
जीते थे आज में बस,उसी क्षण में, करते थे मौज ।
चाहकर भी ना आएंगे फिर लौटकर,
जीवन के हमारे वो स्वर्णिम क्षण,
वो पवित्र समर्पण, वो निष्पाप मन,
ना आशा किसी से, ना ही कोई स्वार्थ,
करते थे वही,उतना ही,जितनी थी समझ,
जीते थे आज में,बस उसी क्षण में, करते थे मौज ।
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