घर की खिडकी से देखा जब,
नन्हे-मुन्हों को खेलते हुए,
ना जाने मन क्यूं चला गया,
पुरानी यादो के साए में.
वो लडकपन के दिन,खेलना मजे से, वो रहना बेपरवाह,
ना चिंता थी कल की, ना कल का था बोझ,
जीते थे आज में, बस उसी क्षण में, करते थे मौज ।
वो मस्ती के दिन,वो माँ को सताना,
क्रिकेट के आगे सब भूल जाना, क्या खाना क्या पीना,
वक्त पर घर ना आना, वो माँ की डाँट,दुलार,प्यार,
वो डर पापा की फटकार का , मार का,
बचने के लिए जिससे सो जाना जल्दी रोज ,
जीते थे आज में बस,उसी क्षण में, करते थे मौज ।
चाहकर भी ना आएंगे फिर लौटकर,
जीवन के हमारे वो स्वर्णिम क्षण,
वो पवित्र समर्पण, वो निष्पाप मन,
ना आशा किसी से, ना ही कोई स्वार्थ,
करते थे वही,उतना ही,जितनी थी समझ,
जीते थे आज में,बस उसी क्षण में, करते थे मौज ।
शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013
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