मैं अमिताभ बच्चन के ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ और हर रोज उनके ब्लॉग को पढता हूँ । आज उनके एक पोस्ट के अंत में उन्होंने , उनके पास आए हुए एक एसेमेस का उल्लेख किया हैं , अंग्रेजी में आए हुए उस एसेमेस का हिन्दी अर्थ मैं यहाँ पर उल्लेख कर रहा हूँ
"नम्बर एक निशानेबाज ने ओलंपिक में स्वर्ण जीता तो सरकार ने उसे एक करोड़ का इनाम दिया, दूसरे नम्बर एक निशानेबाज ने अपने प्राण आतंकवादियों से लड़ते हुए त्याग दिए सरकार ने उसे पॉँच लाख रुपये दिए , सोचिये की असली विजेता कौन हैं "
यह संदेश हम नौजवानों के मन में सवाल पैदा करता हैं कि, देश के लिए प्राणों की आहुति देनेवाले नौजवान यदि अपने परिवार की चिंता करने लगे तो इस देश में क्या हालात पैदा होंगे वही दूसरी ओर ये भी सोचने को मजबूर करता हैं की देश के लिए मर मिटने का जज्बा युवाओ से सदा के लिए ख़त्म भी हो सकता हैं । आतंकवाद रुपी दानव को ख़त्म करने के लिए हमें उसी जज्बे की जरूरत है जो की इंस्पेक्टर शर्मा जैसे जांबाज सिपाही ने दिखायी हैं, जो अपने बीमार बेटे की सुधि लेने की बजाय आतंकवादियों से लोहा लेने के लिए बिना किसी सुरक्षा के ही पहुँच गया, किंतु सरकार का ये सौतेला व्यवहार देश की सेवा करने को उत्सुक युवाओं के मन को बदल सकती हैं । आज के समय में केवल सम्मान और मैडल से ही जिंदगी नही चलती, जीवन को चलाने के लिए पैसो कि आवश्यकता होती हैं, जिसकी कमी हमें ऐसे वीरो को और उनके शहीद होने के पश्चात उनके परिवार को नही होनी देनी चाहिए तभी देशप्रेम का जज्बा कायम रहेगा और भगत सिंह के इस देश में हर कोई चाहेगा की उसके परिवार का भी कोई व्यक्ति देश के लिए प्राण न्योछावर करे ।
अपने इस पोस्ट को अंत करते हुए एक हास्यकवि द्वारा कही गई बात का उल्लेख करता हूँ । कवि कहता हैं की इस वक्त हर समय हर व्यक्ति यही चाहता हैं की उसके पड़ोसी का बेटा भगत सिंह जैसा बने उसका बेटा नही क्योकि भगत सिंह की मृत्यु तो जवानी में ही हो गई थी , यदि उनका बेटा यदि जवानी में शहीद हो गया तो उनके बुढापे का क्या होगा ।
सरकार यदि इस कवि की बात को सच होने से रोकना हैं तो अपना रवैया और दृष्टिकोण दोनों ही बदलने होंगे ।
गुरुवार, 25 सितंबर 2008
शुक्रवार, 19 सितंबर 2008
फिल्मे जो मैंने देखी
पिछले हफ्ते मैंने तीन अलग - अलग फिल्म देखि दो फिल्म तो एक ही विषय पर बनी थी किंतु तीसरी फ़िल्म डी लास्ट लीअर अमिताभ बच्चन की पहली अंग्रेज़ी फ़िल्म का विषय अलग था तीनो ही फिल्मो में अभिनय और निर्देशक द्वारा कलाकार से उसके अन्दर की संपूर्ण कला निचोड़कर परदे पर डाल दी हो ऐसा भाव साफ़ दिख रहा था अन्य दो फिल्मे थी आतंकवाद को पृष्ठभूमि में रखकर बनी फिल्मे "मुंबई मेरी जान" और " ऐ वेडनेसडे ". अनुपम खेर , परेश रावल , के के मेनोन,अमिताभ जी और अर्जुन रामपाल ने अपने परिपक्व अभिनय से इन फिल्मो को मेरे और मेरे जैसे कई और सिनेमा प्रेमियों के दिलो में हमेशा के लिए अंकित हो गए हैं ये पोस्ट मै सिर्फ़ इसलिए लिख रहा हूँ क्योकि ये फिल्मे देखने पश्चात मुझे इन फिल्मो की तारीफ़ करने की इच्छा हुई और मैंने कई मेरे दोस्तों को इन फिल्मो को देखने की सलाह भी दी और उनमे से कुछ ने तो मेरी सलाह मानी भी इस हफ्ते श्याम बेनेगल निर्देशित मेरे जीवनकाल की पहली कॉमेडी फ़िल्म वेलकम टू सज्जनपुर आ रही हैं जिसे देखने के लिए मैं उतना ही बेकरार हूँ जितना मेरी बेकरारी सिंह इस किंग ने बधाई थी
रविवार, 14 सितंबर 2008
गणेशोत्सव और राजनीती
आज गणेश विसर्जन हो गया है , ग्यारह दिनों का उत्सव समाप्त हो गया और रात के इस वक्त कुछ अप्रिय नही घटा तो शांतिपूर्वक ही बीत गया । कल दिल्ली के हादसों की वजह से सुरक्षा के इंतजामात काफी कड़े किए गए थे किंतु जब मैं अपने इलाके बोरीवली पश्चिम के गोराई बीच की ओर जा रहा था लोगो की जबरदस्त भीड़ के बीच असहाय से लग रहे पुलिसवालों को देख कर लग रहा था जैसे कुछ भी हो जाए इनके लिए किसी भी चीज को काबू में कर पाना नामुमकिन होगा । चारो तरफ़ हर ओर अलग - अलग राजनितिक दलों के पंडाल जो की गणेश भक्तो के स्वागत और उनके द्वारा अपने वोटबैंक को मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे । हर ओर अलग - अलग लाउड - स्पीकरों द्वारा अपने दल का और अपने प्रमुखों का नाम ले लेकर जनता के दिलो में उनकी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे । हाँ एक खास बात और थी इन राजनितिक मंचो में , कुछ मंचो ने खास तौर पर डीजे का इंतजाम भी कर रखा था और उनमे से एक मनसे का भी मंच था जिस के लाउड - स्पीकर से केवल हिन्दी गाने ही सुनने को मिल रहे थे । शिवसेना के मंचो पर कम चहल पहल देखकर ऐसा लग रह था जैसे इस वर्ष उनकी आधी ताकत जो मनसे ने छीन ली , और जो आधी बची हुई थी वो भी धीरे - धीरे कम होती जा रही हैं । आजादी पाने के लिए, लोगो में जागरूकता लाने के लिए और उन्हें एकजुट कर एक मंच पर लाने के लिए जिस त्यौहार की शुरुवात लोकमान्य तिलक ने की थी वो अब एक वोट पाने के लिए जरिया बन गया हैं उत्सव के द्वारा जनता को आकर्षित करने के लिए प्रचार प्रसार किया जा रहा हैं और पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे हैं । अगर इश्वर - कृपा से प्राप्त इस धन का ज्यादा हिस्सा सामाजिक कार्यो में लगाया जाए तो बेहतर होगा और इस बिहार बाढ़ - पीडितो को इसकी सबसे ज्यादा जरुरत हैं ।
शुक्रवार, 12 सितंबर 2008
संकोच
कैसे कहे तुमसे मन में कितने अरमान हैं , होठो पर ताला लगा कर दबाये रखते हैं, पास तुम बैठी रहती हों पर मन से दूरी से बनाये रखते हैं ।
वक्त गुजरता हैं बड़ी मुश्किल से हमारा ,पर खैर अब इसकी आदत सी हो गई हैं ,
तुमसे कुछ न कह पाने की कमजोरी, अब हमारी बेबसी हो गई हैं ।
इजहारे मुहब्बत कैसे करे हम ये आता नही हैं हमें , तुम्हारे आशिको की भीड़ में खो जाते हैं
कुछ वक्त तुम्हारे साथ तन्हाई में नही गुजार पाते
तुम्हारे दीवानों में एक हमारा भी शुमार हैं , ये तुमको बतला नही पाते
शत्रु मेरा बन गया हैं अब तो ये संकोच मेरा !!
बुधवार, 10 सितंबर 2008
दर्शन कब दोगे "राजा"
पिछले पन्द्रह वर्षो से मुंबई में रह रहा हूँ पर कभी पंडाल में जाकर लालबाग के राजा का दर्शन नही कर पाया हूँ पिछले शनिवार की रात हिम्मत करके पंहुचा कुछ दोस्तों के साथ किंतु रात भर उस भीड़ में यहाँ - वहा करने के पश्चात जब करीब सुबह पाँच बजे ऐसा लगा की अगले दिन रात तक भी दर्शन होने की सम्भावना नही हैं तो हारकर हम सब लौट आए । ऐसा लगता हैं मानो राजा हमें अभी अपने दर्शन का लाभ नही देना चाहते अगले दिन जब मैंने अख़बार पढ़ा तो पता लगा की शनिवार की रात को रिकॉर्ड संख्या में लोग लालबाग पहुंचे थे । रात के दो बजे सडको पर ऐसी चहल - पहल थी मानो जैसे शाम के सात बजे हों । जब पानी की बोतल लेने के लिए हम एक दुकान पर पहुंचे तो उन्होंने भी ये माना की आज की भीड़ उनकी अपेक्षाओ से भी अधिक हैं , दस रुपये की पानी की बोतल के लिए पन्द्रह रुपये लेते हुए उन्होंने जवाब दिया । उनके जवाब में सुबह दुकान देरी से खोलने की खीज भी थी खैर जब हम लौट रहे थे तो भीड़ के शोर से असमय ही नींद से जग गए लोग खिड़कियों झांकते हुए दिखाई दे रहे थे वो लालबाग के राजा का उतना ही सम्मान करते होंगे किंतु दस दिनों तक तो शायद उन्हें सोने में दिक्कत तो होती ही होगी ।
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